जीवन परिचय
*देहावसान -14 सितम्बर 1992
Monday, December 27, 2010
मायड भाषा के सपूत चन्द्र सिंह बादळी का सम्पूर्ण जीवन परिचय
राजस्थान की बालू रेत के टिब्बो से घिरी मरुभूमि की आग उगलती गर्मी,तीर सी लगने वाली सर्दी और रिम झिम करती सुहावनी वर्षा की अनूठी प्रकृति ने अपने आंचल में अनेक सपूतों को जन्म दिया है |
अपने जीवन को अलग अलग क्षेत्रों में समाज और राष्ट्र को समर्पित कर वे महान सपूत कालजयी हो गए| ऐसे में कालजयी सपूतों में चंद्र सिंह बिरकाली का नाम है,जिन्होंने मायड भाषा राजस्थानी के साहित्य को समृद्ध कर,राजस्थान की अनूठी प्रकृति को देश के कोने कोने में पहुचाकर अमर कर दिया |
गांवो में चोपालों, खेतों, पनघटों पर बोली जाने वाली भाषा में रचनाओ को जन्म देकर राजस्थानी साहित्य को समृद्ध करने वाले कालजयी कवी चंद्र सिंह बिरकाली का जन्म राजस्थान के जिले हनुमानगढ़ की नोहर तहसील के बिरकाली गाँव में हुआ था| ठाकुर खुमान सिंह के घर में विक्रमी संवत १९६९ श्रावन सुदी पूर्णिमा (२७अगस्त १९१२)को महान सपूत ने किलकारी मारी थी| चंद्र सिंह का रचना संसार ७ वर्ष की अल्प आयु में ही शुरू हो गया था तथा राजस्थान की प्रकृति पर उनका लिखा गया एक एक शब्द अमर हो गया| बादळी और लू उनकी दो महान काव्य रचनाये है जिन्होंने सारे देश का ध्यान राजस्थान की ओर आकर्षित किया |
चंद्र सिंह बिरकाली से घर बसाने के बारे में एक बार पूछा गया था तो उन्होंने उतर दिया कि दो कमरे बादळी और लू आकाश में बनाये है| उनमे वास करूँगा| इन काव्य कृत्यों की महानता इससे बड़ी और कोई नहीं हो सकती कि ये दो रचनाये लोगो के हृदय में समाई हुई है |
राजस्थान के बाहर रहने वाले लोगों को लू रचना सबसे अधिक प्रिय लगी !चंद्र सिंह स्वंय को भी लू अधिक प्रिय लगती थी जिसका कारण वे बतलाया करते थे कि मरुभूमि में वर्षा तो यदा कदा ही होती है, मगर लू तो सदा
सदा ही मिलती रहती है |
जब लू चलती तो सब कुछ झुलसा देती है | बसन्त भी लुट जाता है जिसका सागोपांग वर्णन चन्द्र सिंह बिरकाली ने किया है
फूटी सावन माय
वाडी भरी बसन्त री लूटी लुआं आय
चन्द्र सिंह बिरकाली की ख्याति एक कवी के रूप में बदली के प्रकाशन के साथ ही फेलने लगी थी | बादळी सन १९४१ में लिखी गयी और उसका पहला संस्करण बीकानेर में प्रकाशित हुआ था| बीकानेर रियासत के महाराजा सादुलसिंह उस समय युवराज थे,जिन्हें पहला संस्करण समर्पित kiya गया था ! सन १९४३ में लोगो ने पढ़ा और ऐसा सराहा की चारो ओर बादळी की चर्चा होने लगी थी |बादळी को मरुधरा के वासी कैसे निहारते है, कितनी प्रतीक्षा करते है और वर्षा की बूंदों की कितनी चाह होती है |यह बिरकाली ने जनभाषा में बड़े ही रोचक ढंग से लिखा | बादळी के प्रकाशन के तुरंत बाद ही बिरकाली को काशी की नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा रत्नाकर पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया गया | इसी पर राष्ट्रीय स्तर का बलदेवदास पदक भी बिरकाली को प्रदान कर सम्मानित किया गया| आधुनिक राजस्थानी रचनाओ में कदाचित बादळी ही एक ऐसी काव्यकृति है jiske अब तक नो संस्करण प्रकाशित हो चुके है | महान साहित्यकारों सुमित्रा नंदन पन्त,महादेवी वर्मा और सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" ने बादळी पर अपनी सम्मतिया दी और उसे एक अनमोल रचना बतलाया
| यह अनमोल रचना कई वर्षो से माध्यमिक कक्षाओ के पाठ्यक्रम में पढाई जा रही है | साहित्यकारों रविन्द्र नाथ ठाकुर,मदन मोहन मालवीय आदि ने भी बिरकाली को श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में स्वीकार किया था |
बादळी और लू रचनाओ ने अनेक नए कवियों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया | चन्द्र सिंह बिरकाली की कुछ कविताओ का अंग्रेजी में भी अनुवाद हुआ | केंद्रीय साहित्य अकादमी के लिए प्रो.इंद्रकुमार शर्मा ने बादळी और लू का अंग्रेजी में अनुवाद किया था ! बीसवी शताब्दी का छठा दशक कविवर बिरकाली की सम्पन्नता और तेजस्विता का रहा | बिरकाली ने गाँव को छोड़कर प्रदेश की राजधानी को कार्यक्षेत्र बनाने हेतु जयपुर की खासा कोठी में अपना डेरा जमाया जहाँ कमरा नं.९ में वे रहने लगे | कुछ महीनो तक वहां रहने के बाद वे सी स्कीम में रहने लगे थे | चन्द्र सिंह के आसपास जयपुर में एक प्रभामंडल सृजित हो गया था, जिसमे राजनीतिज्ञ प्रशाशनिक व पुलिस अधिकारी,और साहित्यकार सामिल थे | तत्कालीन गृह एवम स्वास्थ्य चिकित्सा मंत्री कुम्भाराम आर्य कविवर चन्द्र सिंह बिरकाली के अनन्य मित्रो में से एक थे | उस समय जनसम्पर्क निदेशक ठाकुर श्याम करणसिंह उप पुलिस महानिरीक्षक जसवंतसिंह पुलिस अधीक्षक जगन्नाथन भी बिरकाली के मित्रों में से एक थे |
रावत सारस्वत के सहयोग से उन्होंने राजस्थानी भाषा प्रचार सभा का गठन किया और राजस्थानी में मरुवानी नामक मासिक का प्रकाशन शुरू किया | मरुवानी का प्रकाशन शुरू करना आधुनिक राजस्थानी के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना रही| लगभग दो दशक तक प्रकाशित होती रहने वाली इस पत्रिका के माध्यम से राजस्थानी भाषा का श्रेष्ठतम सर्जन महत्वपूर्ण और प्रभावशाली रूप में सामने आया |राजस्थानी के चुने हुए रचनाकार मरुवाणी से जुड़े हुए थे | संस्कृत के प्रसिद्ध काव्यों के राजस्थानी में अनुवाद हुए जो चन्द्र सिंह और मरुवाणी के माध्यम से ही संभव हो सके थे !
चन्द्र सिंह बिरकाली उदार और मनमौजी स्वभाव के थे इसीलिए सातवे दशक में उनका प्रभामंडल प्रभावित होने लगा तथा आर्थिक संकट शुरू हो गया | वे बनी पार्क के एक छोटे से माकन में रहने लगे मगर साहित्य सर्जन को जारी रखा ! चन्द्र सिंह बिरकाली संस्कृत के बहुत अच्छे ज्ञाता थे | उन्होंने संस्कृत में रचे कुछ प्रसिद्ध काव्यों का सरल और सरस राजस्थानी में अनुवाद किया था |संस्कृत और संस्कृति प्रेम के संस्कार उनमे डा.दशरथ वर्मा ,पंडित विद्याधर शास्त्री ,प्रो.नरोतम स्वामी और सुर्यकरण पारिक जैसे गुरुजनों से मिले थे |
उन्होंने महाकवि कालिदास के रघुवंश का सरल राजस्थानी में अनुवाद किया जो मरुवाणी में प्रकाशित हुआ था जिसका एक खंड 'दिलीप' नाम से छप चूका है |उन्होंने कालिदास के ही विश्वप्रसिद्ध काव्य मेघदुतम का भी सरल राजस्थानी में मेघदूत के नाम से अनुवाद किया था |
उन्होंने महाकवि हाल के प्रसिद्ध प्राकृत ग्रन्थ गाथा सप्तसती की चुनी हुई श्रगारीक गाथाओ का राजस्थानी दुहों में अनुवाद किया और उसे नाम दिया,"कालजे री कोर " उन्होंने जफरनामा का भी अनुवाद राजस्थानी में किया | उन्होंने रविन्द्र नाथ ठाकुर की चित्रागदा का भी राजस्थानी में अनुवाद किया था | राजस्थान साहित्य अकादमी ने रविन्द्र सताब्दी के दौरान रविन्द्र नाथ ठाकुर की कविताओ के इस राजस्थानी अनुवाद को प्रकाशित किया था | उनका रचना कर्म बाल्यकाल से ही शुरू हो गया था | उन्होंने बालसाद नामक पुस्तक में अपने बचपन की काव्य व् गध रचनाओ को समेटा | उनकी अन्य रचनाओ में सीप नामक पुस्तक में परिपक्व जीवन के अनुभव की सुक्तिया राजस्थानी गध में है | उनकी अन्य रचनाओ में कहमुकुरनी,साँझ,बंसंत,धीरे,डाफर,चांदनी,बातडल्या बाड़ आदि है |
ऋतुराज बसन्त आता है तब प्रिय को वरन करने का मन होने लगता है | इसे बिरकाली नेअनूठे ढंग से संजोया |
सूरज सुलबे आवियो, आयो डाफर अंत |
धरा वरण मन धार, अब बैठ्यो पाट बसन्त ||
मरुवाणी के लोग जो जीवन भोगते है उसका मार्मिक वर्णन बिरकाली के काव्य में है
खारो पाणी कुवंटा दिस दिस बजड भोम
उजड़ा सा बसिया जठे मिनखा न मत होम
गर्मी में जब लू चलती है तब के हाल प्र बिरकाली का वरणन
अलगा अलगा गाँवडा करडा करडा कोस
लूआ रल गया राह्ड़ा पंथी किण ने दोस
चन्द्र सिंह बिरकाली ने उच्च शिक्षा बीकानेर के डूंगर महाविद्यालय में प्राप्त की लेकिन शिक्षा को नौकरी का आधार नहीं बनाया | चन्द्र सिंह बिरकाली कुछ समय राजनीती में भी सक्रिय रहे लेकिन बाद में पुन साहित्य की ओर मुड गए | देश के स्वाधीन होने से करीब १० वर्ष पहले उन्होंने हिंदी में अंगारे शीर्षक से करीब एक सौ स्वतन्त्र छंद लिखे जो अभी अप्रकाशित है | इनमे स्वतंत्रता के लिए हृदय में जो ज्वाला थी वह प्रगट हो रही थी |
मायड भाषा के सपूत चन्द्र सिंह बिरकाली गाँव के एक ऊँचे रेतीले टिब्बे पर बैठ कर रचनाओ का सर्जन किया करते थे | यह ऊँचा टिब्बा आज भी गर्व से अपना भाल उठाये खड़ा है | इसी टिब्बे पर बैठ कर राजस्थानी भाषा के चहेते इटली निवासी डा.अल.पी.टेस्सीटोरी से बिरकाली की भेंट हुयी थी | बिरकाली ने इस टिब्बे का नाम टेस्सीटोरी टिब्बा रख दिया था |
राजस्थानी भाषा में बिरकाली ने जितना साहित्य सर्जन किया वह उनकी कीर्ति के लिए बहुत है | राजस्थानी भाषा का यह सपूत १४ सितम्बर १९९२ को यह संसार छोड़कर अमरत्व को प्राप्त हो गया | सांसारिक यात्रा के अंतिम ११ वर्ष उन्होंने अपने गाँव बिरकाली में ही बिताये थे |अंतिम समय उनके पास छोटे भाई बचन सिंह और बिरजू सिंह तथा उनके भतीजे शिवराज सिंह थे|
चन्द्र सिंह बिरकाली अभी कुछ वृष तक और जीना चाहते थे | वे वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण का राजस्थानी में अनुवाद करना चाहते थे | वे बिरकाली में राजस्थानी भाषा का एक शोध केंद्र भी खोलना चाहते थे | मायड भाषा के इस सपूत के अमरत्व प्राप्त करने से ७ दिन पूर्व आकाशवाणी सूरतगढ़ ने एक साक्षात्कार लिया था जो आज इतिहास बन गया है | उन्होंने राजस्थानी भाषा को मान्यता देने के प्रय्तनो के बारे में कहा की इसमें राजनीती घुस गयी है |
साची सूझ सरकार की संगम भेज्यो सुभाग
सांचे मन स्यूं सिंचियों मरुवाणी रो बाग
मायड भाषा के सपूत कवि चन्द्र सिंह बिरकाली को इन्ही पंक्तियों के साथ शत शत नमन
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काळजै री कोर by चंद्र सिंह बादळी
मौत डरे नह कागली, साथै बहती जाय !!
२.भुआ, गाँव तलाब कुण, उल्टायो आकास !
उड्या न हंसा उण समै, कमळ न बिखरया खास !!
रूप- सिणगार
१. ऐकल कालो हिरण जब, बायों पलटे काज !
बे आंख्या जळकाजळी, लोपण दूभर राज !!
२.कंगण-कोर उजाळती,हळदी उबटन हाथ !
कुण भागी होसी भलां, रमसी थारै साथ !!
३.हरखी हाळी लाडली,ओढ़ नवल्लो चीर !
संकड़ी गलीयां गाँव री,बदियो इसो सरीर !!
४.बांकी चितवन बांक गत,बांका बांका बोल !
बेटी बांकी तुझ वरे, आ बांकी अनमोल !!
प्रेम----
१.सुख में दुःख में एक गत,एक जान दो खोड़ !
भला पुरबला पुन्न बिन, मिलै न इसडी जोड़ !!
२.आँख गडायां हिरण में,हिरणी छोड़यां प्राण !
याद व्याध धण री करी,छुटी हाथ कबाण !!
३.नीलकमल काना खिले, रज उड़ नैना आये !
फूंक मार मुख चूम ले,कुणसो देव बताय !!
४.साले सखी कदम्ब तरु,और न साले कोय !
आवे कम गुलेल ले, उण रे पुस्पाँ सोय !!
५.बा धण धिन है बापड़ी, सपने देख्या सेण !
पी बिन नींदडली कठे, नैण घुल़ाऊँ रैण !!
६.चंद्रमुखी थारै बिना,चाँद रह्यो तरसाय !
चार पहर री चानन्णी, सौ पहरा जिम जाय !!
७.पथिक वधु बळी देवता, कंगण पडियो आय !
जाणे कुडको रोपियो ,इण दर काग न खाय !!
८.सुख सुमरण प्रिय संग रो, ज्यूँ ज्यूँ आवै ध्यान !
नुए मेघ री गाज आ, बाजै मौत समान !!
९.आखै दिन हाळी खपे, सोवै साँझ निढाल !
हालन जोबन कसमसे, बरसाले मत बाळ !!
१०.हाळी धण जद सुं बणी,कुटिल काळ रो ग्रास !
बसती बो नह बावड़े, हाळी जंगल बास !!
वीरपति
१.घावा बस जागे कुंवर, धण रे नींद न नैण !
सुख सोवे सो गाँव अब, दोरी उण ने रेण !!
२.धनस पिव रो बज्र सो,पड़ी कान टंकार !
बंदी खुद चट पुंछियां, आँसूं बंदी नार !!
३.कोरी बादळ गाज आ, नाह धनस टंकार !
मत हरखे मुझ प्यार दे, पिव न आवे लार !!
Tuesday, June 29, 2010
जफरनामो (मुग़ल बादशाह ओरंगजेब नै लिख्योड़ो गुरु गोविन्दसिंह रो पत्र )
प्यालो दे साकी वो, केसर रंग
साधे काम म्हारलो, जाग्याँ जंग
दाव असली दे इसो, ताजो तेज
कढ़े मोती काद थद सुं, लगे न जेज
१। सिमरु इस तेग रो सिरजणहार !
बाण, ढाल, बरछी भल तेज कटार !!
२। सिमरु इस रच्या जिण, रण जूझार !
पून वेग दोड़तां, भल तोख़ार !!
३। बादशाही तने दी, जिण करतार !
धरम धारण धन दियो, मने अपार !!
४। तुरक ताजी छल तने, दी करतार !
दीन सेवा मने दी,उण दातार !!
५। फबे नह नाम , थारो ओरंगजेब !
नाम ओरंगजेब, नाह फरेब !!
६। खोटे करम बना रो, खाक मंदी !
गुन्धी भाया रंगतां, भारी रीत !!
७.घर बणाय माटी रो, मांडी नीव !
सुख संपत भाले तू, जड़ अतीव !!
८.बेवफा ज़माने रो, चक्कर देख !
जीव बदले देह धर, मीन न मेख !!
९.सतावै जे तू, मिनख जान गरीब !
कसम खुदा ने चीर, इण तरकीब !!
१०.साईं जे साथी हो, हक़ री बात !
भावे सो रूप धारे, वै ही मात !!
११.बैरी करे दुश्मनी, बार हज़ार !
बाळ न बांको हुवे साईं लार !!
सुभान तेरी कुदरत
पवन रा हळका लैरका लोरी सी देवे ! धरती री हरी साड़ी पर उगते सूरज री किरणा कसीदो सो काढ़े! जंगल में मंगल !
जगां जगां हिरणा री डारां ! काला हिरण आगै सिरदार सा चालै ! लारै हिरणयां ! बाखोट ऊछले !चट चोकड़ी साधे तो लाहोरी कुता रा कान काटे ! झाडया रे ओले लूंकड़ी पूंछ रमाती फिरै ! स्याल अर स्याली रात रा धायेडा,कोरै कोरै टीबां पर लोटपलोटा खावै, किलोल करै, रागन्या काडै ! तो कठे सुसिया मखमल सी घास पर रुई रा फ़ैल सा उड़तां दिसे तो कठे आखरी में बेठयां गेळ करै ! भांत भांत ऋ चिड़ियाँ चर चर करै ! कैरां पर गोलिया टूट्या पड़े ! सारी रोही चैचाट करै !
उण समै एक तितर खेजडी सुं उड़ कोरी सी टीबी पै नीचे उतरयो! सामै दीवल सुं भरयो पुराणो छाणो दिस्यो ! डग खुली, नस उठी, चोफेर देख्यो !जंगल में मंगल देख फूल्यो !आखी जियाजूण जीवण सनेसो दियो ! खुसी रो अन्त न पार !मगन हो पुरै जोर सुं बोल्यो ! सारी रोही गूंजी-'सुभान तेरी कुदरत' ! तितर रो बोलणो हुयो, ऊपर उडतै लक्कड़बाज री आँख चट उण पर पड़ी ! पवनवेग, सरसप्प नीचो आयो !पाछो ऊंचो चढयो तो तितर बाज रै पंजे में हो, दीवल छाणे में ! दुसरो तितर बोल्यो !रोही फेर गूंजी -"सुभान तेरी कुदरत" !!!
Tuesday, February 9, 2010
राजस्थान बा धरा जठै खून सस्तो अर पाणी मूंगो। बात सट्टै जठै सीस देईजै। इसड़ी धरा रो कवि जुद्ध रै जुझारां नै कविता सुणा देवै तो मरियोड़ा तलवार उठा लेवै। सीस कट्यां पछै भी धड़ लड़ै। आ राजस्थानी जोद्धा री कोनी, कविता री ताकत है। जकी धरती पर मरण मंगळ मानीजै बीं धरा पर प्रकृति रै मिस जीवण री कामना करी कवि चंद्रसिंह बिरकाळी। 'लू' अर 'बादळी' बां रा अमर-काव्य। आखी दुनियां में धूम मचाई। कवि जकी भाषा में आ सरजणा करी बा आज ई आपरै मान नै तरसै। तपती धरती मेह सूं सरसै तो भाषा मानता सूं। कविता भाषा नै तोलण वाळी ताकड़ी मानीजै। आज बांचो, कवि चंद्रसिंह बिरकाळी रा रच्या 'लू' काव्य-कृति रा कीं दूहा अर कूंतो आपणी भाषा री ताकत। इण दूहै मांय कवि लूवां सूं अरज करै कै फूलां री नरम-नरम पांखड़्यां है, नरम-नरम-सी ऐ बेलां अर नरम-नरम-सा पत्ता है, आं रो ध्यान राखी। आं पर दया करी।
कोमळ-कोमळ बेलड़्यां, राख्यां लूआं ध्यान।।
बाड़ी भरी बसंत री, लूटी लूवां आय।।
बेलां री आंख्यां साम्हीं उणरा लाडेसर बेटा फूल झड़-झड़ पड़ै। देख-देख बेलां झुरै। इण दुख में जड़ समेत भुरभुरा जावै।
झुर झुर बेलां सूकियां, भुर भुर गई समूळ।।
बैसाख महीनै में लूवां बाळपणो। इण बाळपणै में ई इत्ती आकरी, तो जेठ महीनो तो लूवां रै जोर-जोबन रो महीनो, उण वगत बचण रा कांई उपाव करस्या!
पूरै जोबन जेठ में लूआं किसो उपाव।।
राजस्थान री तिरसी धरा पर पाणी री तंगी। दूर-दूर सूं चौघड़ भर-भर ऊंठां पर लाद-लाद बठै लावै जठै घर रा तिसाया जीव-जिनावर पाणी नै उडीकै। पाणी नै घी री दांई बरतै, पण फेर ई लातां-लातां ई निवड़ जावै।
लातां-लातां नीवड़ै, बरतै जळ ज्यूं घीव।।
'लू' कृति में कुल 104 दूहा है। बाकी दूहा भी आपां बांचता रैस्यां।
Monday, February 8, 2010
चन्द्र सिंह बिरकाली
चन्द्र सिंह बिरकाली 4 कविताएं
सीप-१
विदा लेते हुए
रात ने उषा से कहा-
कल यहीं, अच्छा ।
उड़ती हुई उषा ने
सूरज से सुना-
कल यहीं, अच्छा !
आंखों से ओझल होते
सूरज से
अंत में सांझ ने वचन लिया
कल यहीं, अच्छा !
सीप-२
डालों से लगे हरे-हरे पत्ते
एक दूसरे के सामने देख
चंचल हुए
एक दूसरे से
मिलने के लिए ललचाए
अपनी-अपनी जगह स्थिर
सूखे पत्ते
दूर-दूर से आकर
एक दूसरे से गले मिल रहे हैं,
साथी ! आओ झरें......
सीप-३
अंधेरे से उजाले में आते ही
बच्चा रोया
इससे जीवन का अर्थ लगा
लोग हंसे,
धीरे-धीरे देखा देखी
वही बालक उजाले का आदी हो गया
एक दिन अचानक
अंधेरा आते देख
वही बालक
उजाले के लिए रोने लगा ।
सीप-४
तपे हुए तकुए सी तेज
सूरज की किरणों की लौ
अपने गले से उतार
कलेजे में छाले उपाड़
दिन भर धूनी रमा
रात को अमृत बरसाया
उस चांद को
लोगों ने चोर बताया ।
Sunday, February 7, 2010
*बादळी*
जीवण ने सह तरसिया,बंजर झंखर बांठ !
बरसै भोळी बादळी, आयो आज आसाढ़ !!
आठु पौर उडिकता, बीते दिन जयुं मास !
दरशन दे अब बादळी, मत मुरधर रै तास !!
आस लगाया मुरधरा, देख रही दिन रात !
भागी आ तू बादळी, आई रुत बरसात !!
कोरा कोरा धोरियां, डुगा डुगा डैर !
आव, रमा ए बादळी, ले-ले मुरधर ल्हेर !!
छिनेक सूरज निखरियो, बिखरी बाद्लीयाह !
चिलकन ने मुह लागियो, धरा किरण मिलीयाह !!
छिण में तावड तड ताड़े, छिण में ठंडी छांह !
बादलियाँ भागी फिरै, घाल पवन गलबाह !!
रंग-बिरंगी बादळी, कर-कर मन में चाव !
सूरज रे मन भावतो , चटपट करे बणाव !!
चड-चड करती चिडकल्या , करै रेत असनान !
तम्बू सो अब तांनियो, बादलिया असमान !!
दूर खितिज पर बादलियाँ, च्यारूं दिस में गाज !
जाणे कमर बांध ली, आभे बरशन आज !!
आभे अमुझी बादळी, धरा अमुझी नार !
धरा अमुझया धोरिया, परदेसा भरतार !!
गाँव-गाँव में बादळी, सुणा सनेसो गाज !
इंदर बुठन आविया, तुठन मुरधर आज !!
नहीं नदी नाला अठे, नहीं सरवर सरसाय !
एक आसरो बादळी, मरू सुकी मत जाय !!
आता देख उतावली, हिवडे हुयो हुलास !
सिर पर सुकी जावता, छुटी जीवन आस !!
तिरिया मिरिया तालडा, टाबर तडपड़ ताह !
भाजे, तिसले ,खिलखिले, छप-छप पाणी माह !!
लागी गावन तीज ने, रळ-मिळ धीवडिया !
गोगा मांडे मोड़ भर, टाबर टीबडिया !!
आज कलायण उम्टी, छोड़े खूब हलुस !
सो-सो कोसां बरससी , करसी काळ विधुसा !!
ज्यु-ज्यु मधरो गाजियो, मनडो हुवो अधीर !
बिजल पलको मारता , चाली हिवडे चीर !!
परनाला पाणी पड़े, नाला चलवलिया !
पोखर आस पुरावना, खाला खलखालिया !!
*लू*
कोमल-कोमल पांखडया, कोमल-कोमल पान !
कोमल-कोमल बेलडया, राख्या लुआं ध्यान !!
लुआं लाग पिळीजिया, आमाँ हाल-बेहाल !
पीजूं मरुधर पाकिया, ले लाली जूं लाल !!
धरा गगन झळ उगले, लद-लद लुआं आग !
चप-चप लागे चरडका, जीव छिपाली खाय !!
भैसां पीठा चिकनी, ऊपर लुआं आग !
बेदी सी दिसे बणी होम धूंवासो लाग !!
चेती सौरभी चूस ली, कल्या गयी कुमलाय!
फुला बिछड़ी पाखडया, लुआं बाजी आय !!
जिण दिन झड़ता देखिया, पायो दुःख अणमाय !
बणसी आपे बेलडया , मत ना सेको ताप !!
सांगरिया सह पाकियाँ, लुआं री लपटाहं !
खोखा लाग्या खिरण ने, दे झाला हिरणाह !!
जे लुआं थे जानती, मन री पीड !
बादळीया ने जनम दे , भली बंटाती भीड़ !!
प्रीतम रो मुख पेखता, हिवड़ो होवे हेम !
लुआं पण रोके मिलण, भलो निभावे नेम !!
लुआं थारे ताव में, दीन्हो सब कुछ होम !
करे तपस्या मुरधरा, बिलखे बीजी भोम !!
*बाळसाद *
हाळी हाकम लेयसी, पड़े न चुक किसान !!
सोनी हाट उठायले, अठे न दिसे सार !
बाजेली इण बास में, घणा तंनी धमकार !!
रेसम रा लच्छा बुने, कीड़ा तूं कटरूप !
सांप भखण रों काम बस, ध्रिग-ध्रिग मोर रूप !!
कलिया काळ कहावता, आज कही जों फूल !
कुमला जास्यो काल थे, बाँटो बास समूल !!
गूंगा भोगे गाँव, स्याणा सिसकारा भरे !
नारायण ओ न्याव, चित में साले चन्द्रसी !!
मिले चका चक चुरमो, साथी आवे सो !
चीणा चाबात देख बस, छिन्न छुमंतर हो !!
*रूप-सिणगार*
लिछमी सागर निसरी, देव रहया ललचाय !
यूँ ही गौरी रूप में, पंथी आँख गडाय !!
मोह़े मन आ मंत्र जयुं बालपने में बाल !
जोब छासी जिण समै, कामी जण के हाल !!
एकल कालो हिरण जब, बांयो पळटे काज !
बै आँखया जळ काजळी, लोपण दूभर राज !!
कगन कोर उजालती, हल्दी उबटन हाथ !
कुण भागी होसी भलां, रमसी थारे साथ !!
हरखी हाली लाडली, ओड नवल्लो चिर !
संकडी गलियां गाँव री, बधियो इसो शरीर !!
बांकी चितवन बांक गत, बांका-बांका बोल !
बेरी बांकी तुझ वरे, आ बांकी अणमोल !!
*बसंत*
म्हारे आंखया देखतां, लुटसी महारा लाल !
जै म्हे माळी जानती, सुक छुलाती ख़ाल !!
माळी मन हरखे मति, महारी छोड़ छुड़ाय !
बस डाली सुं टूटता म्हे, जास्या कुम्लाय !!
*सीप*
जवानी में एक दांत रोटी टूटी
बिरधापन साथै बितायो
मरया पछे,एक गंगा में,दूजो कबर में
अंत में अलगा करण रो ओ
ओ सांग किसो?
*मरुधर महिमा *
मरुधर म्हाने पोखिया, मरुधर म्हारो प्राण !
राखा आखै जगत में, मरुधर रो म्हे माण !!
म्हारे मन में मोद अत, मरुधर म्हारो देस !
मरुधर रा म्हे लाडला, गावा गीत हमेस !!
बै धोरा वै रुंखडा, वा सागन वणराय !
वै साथै रा सायना, कियां भुलाया जाय !!
जावां चारों कुंट में, जोवां जगत तमाम !
निस दिन मन रटतो रहे, प्यारो मरुधर नाम !!
Saturday, February 6, 2010
’स्व.चन्द्र सिंह जी बिरकाळी’ की 15 वीं पुन्य तिथि पर कार्यक्रम आयोजित
कथाकार मदन गोपाल लढढा ने भावी पीढी को सार्थक साहित्य से जोडकर परम्पराओं के संरक्षण की आवश्यकता जताई। बिरकाळी साहित्य संस्थान के संरक्षक बच्चन सिंह ने संस्थान के साहित्यिक गतिविधियों का विवरण देते हुए कहा कि चन्द्र सिंह जी के जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर किया। कार्यक्रम में बाल साहित्यकार दीन दयाल शर्मा,पूरन शर्मा ’पूर्ण’,पवन शर्मा,सतपाल खाती,हरी शेखर शर्मा आदि ने भी विचार व्यक्त किये।
बिरकाळी के माध्यमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापक किशोर सिंहव संस्थान के अध्यक्ष शंकर सिंह बीका ने अतिथियों का स्वागत किया। इस अवसर पर राजस्थानी साहित्य में शोध करने पर डा.भरत ओला का नागरिक अभिनन्दन किया। कार्यक्रम में सरपंच बेगाराम,उपसरपंच बन्ने सिंह, व बडी संख्या में रचनाधर्मी तथा ग्रामीण उपस्थित थे। संचालन व्याख्याता शिव राज भारतीये ने किया। इससे पूर्व कवि स्व.चन्द्र सिंह बिरकाळी के चित्र पर पुष्पअर्पित कर उन्हें श्रद्घाजंलि दी।