कुं. चन्द्र सिंह "बादळी"

जीवन परिचय

*जन्म -27 अगस्त 1912
*देहावसान -14 सितम्बर 1992

Tuesday, October 4, 2011

दिलीप- रघुवंश महाकाव्य के प्रथम सर्ग का राजस्थानी अनुवाद -चन्द्र सिंह बादळी रचित

‘रघुवंश’ की कथा दिलीप और उनकी पत्नी सुदक्षिणा के ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में प्रवेश से प्रारम्भ होती है। राजा दिलीप धनवान, गुणवान, बुद्धिमान और बलवान है, साथ ही धर्मपरायण भी। वे हर प्रकार से सम्पन्न हैं परंतु कमी है तो संतान की। संतान प्राप्ति का आशीर्वाद पाने के लिए दिलीप को गोमाता नंदिनी की सेवा करने के लिए कहा जाता है। रोज की तरह नंदिनी जंगल में विचर रही है और दिलीप भी उसकी रखवाली के लिए साथ चलते हैं। इतने में एक सिंह नंदिनी को अपना भोजन बनाना चाहता है। दिलीप अपने आप को अर्पित कर सिंह से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें वह अपना आहार बनाये। सिंह प्रार्थना स्वीकार कर लेता है और उन्हें मारने के लिए झपटता है। इस छलांग के साथ ही सिंह ओझल हो जाता है। तब नन्दिनी बताती है कि उसी ने दिलीप की परीक्षा लेने के लिए यह मायाजाल रचा था। नंदिनी दिलीप की सेवा से प्रसन्न होकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देती है। राजा दिलीप और सुदक्षिणा नंदिनी का दूध ग्रहण करते हैं और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस गुणवान पुत्र का नाम रघु रखा जाता है जिसके पराक्रम के कारण ही इस वंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है।
रघु के पराक्रम का वर्णन कालिदास ने विस्तारपूर्वक अपने ग्रंथ ‘रघुवंश’ में किया है। अश्वमेध यज्ञ के घोडे़ को चुराने पर उन्होंने इन्द्र से युद्ध किया और उसे छुडा़कर लाया था। उन्होंने विश्वजीत यज्ञ सम्पन्न करके अपना सारा धन दान कर दिया था। जब उनके पास कुछ भी धन नहीं रहा, तो एक दिन ऋषिपुत्र कौत्स ने आकर उनसे १४ करोड स्वर्ण मुद्राएं मांगी ताकि वे अपनी गुरु दक्षिणा दे सकें। रघु ने इस ब्राह्मण को संतुष्ट करने के लिए कुबेर पर चढा़ई करने का मन बनाया। यह सूचना पाकर कुबेर घबराया और खुद ही उनका खज़ाना भर दिया। रघु ने सारा खज़ाना ब्राह्मण के हवाले कर दिया; परंतु उस ब्राह्मणपुत्र ने केवल १४ करोड़ मुद्राएं ही स्वीकारी।
रघु के पुत्र अज भी बडे़ पराक्रमी हुए। उन्होंने विदर्भ की राजकुमारी इंदुमति के स्वयंवर में जाकर उन्हें अपनी पत्नी बनाया। कालिदास ने इस स्वयंवर का सुंदर वर्णन ‘रघुवंश’ में किया है। रघु ने अज का राज-कौशल देखकर अपना सिंहासन उन्हें सौंप दिया और वानप्रस्थ ले लिया। रघु की तरह अज भी एक कुशल राजा बने। वे अपनी पत्नी इन्दुमति से बहुत प्रेम करते थे। एक बार नारदजी प्रसन्नचित्त अपनी वीणा लिए आकाश में विचर रहे थे। संयोगवश उनकी विणा का एक फूल टूटा और बगीचे में सैर कर रही रानी इंदुमति के सिर पर गिरा जिससे उनकी मृत्यु हो गई। राजा अज इंदुमति के वियोग में विह्वल हो गए और अंत में जल-समाधि ले ली।
कालिदास ने ‘रघुवंश’ के आठ सर्गों में दिलीप, रघु और अज की जीवनी पर प्रकाश डाला। बाद में उन्होंने दशरथ, राम, लव और कुश की कथा का वर्णन आठ सर्गों में किया। जब राम लंका से लौट रहे थे, तब पुष्प विमान में बैठी सीता को दण्डकारण्य तथा पंचवटी के उन स्थानों को दिखा रहे थे जहाँ उन्होंने सीता की खोज की थी। इसका बडा़ ही सुंदर एवं मार्मिक दृष्टांत कालिदास ने ‘रघुवंश’ के तेरहवें सर्ग में किया है। इस सर्ग से पता चलता है कि कालिदास की भौगोलिक जानकारी कितनी गहन थी।
अयोध्या की पूर्व ख्याति और वर्तमान स्थिति का वर्णन कुश के स्वप्न के माध्यम से कवि ने बडी़ कुशलता से सोलहवें सर्ग में किया है। अंतिम सर्ग में रघुवंश के अंतिम राजा अग्निवर्ण के भोग-विलास का चित्रण किया गया है। राजा के दम्भ की पराकाष्ठा यह है कि जनता जब राजा के दर्शन के लिए आती है तो अग्निवर्ण अपने पैर खिड़की के बाहर पसार देता है। जनता के अनादर का परिणाम राज्य का पतन होता है और इस प्रकार एक प्रतापी वंश की इति भी हो जाती है |

.बोल अरथ समझण वीसै,प्रणमूं जग माँ बाप |
   मिळीया वाणी अरथ ज्यू,  उमा इश्वर आप   ||
.सूरज वंस प्रताप कुण, कुणसी म्हारी मत |
   तिरणो चाहूँ मोह बस, दुस्तर सागर हत्थ ||
३.पुगे जिण फळ पंचहथो, लफै बावनो लेण |
    हुवे हंसाई मंदबुद्ध, कुण जस लाग्यो देण||
.खोल्या चारण वंस रा,पहलां कवियां द्वार |
   तागो ज्यूँ मिण बेझ में,मेरी गत है लार||
.मोटी बुध हूँता थकां, वरणु मै रघुवंस |
    सुणीया गुण जिण वंस रा, उण प्रभाव रै अंस ||
.जनम सुद्ध हूँता जिका, फळ लग डटता काज |
    सुरग पार रथ पुगता, समदर लग धर राज ||
.विधि सूं करता होम वै, भरता जाचक मान |
    दोस जाण डंड देवता, उचित समै उत्थान ||
.संगृह करता दान हित, सतहित बीरला बैण |
    जस हित चांता जितणो, सुत हित सायधण सैण ||
.बाळपणे भणता भला, भरी जवानी भोग,
   बाणप्रस्थ बिरधापणे, आखर सरणो जोग ||
१०.स्याणा सद्गुण पारखी, इण कथ सुणनै जोग |
    खरो'क  खोटो आंच में, सुवरण जाणे लोग ||
११.राजावां में आदु नृप,वेदां ज्यूँ ओंकार |
    वैवस्तो मनु नाम रो,स्याणा माण अपार ||
१२.जायो इण सुध वंस में,अति विसूध राजेंद्र |
     नाम दिलीप प्रसिद्ध नृप, खिरसमंद ज्यूँ चन्द्र ||
१३.उर चोड़ो काठो पुठो, बाहू साळ विसाळ |
    क्षात्र धर्म नरदेह में, उपज्यो करण रुखाळ ||
१४.सारां सूं बळ में अधक, सारां तीखो तप्प |
     महि पर उन्नत मेरु सम, धारयो उन्नत ब्प्प ||
१५.देह सारसी प्रखर बुध, बुद्ध सरीसो ग्यान |
     ग्यान सारसो काज बस, फळ सै काज समान ||
१६.सागर दानव रतनमय, ज्यूँ डराय ललचाय |
     नृप गुण पूरण लोक हित, करड़े नरम सुभाय ||
१७.मारग कीधो मनु जिको, लांघी रति न लीक |
      भली धुरी परजा चली, मिल्यो सारथी ठीक ||
१८.ज्यूँ सूरज जळ सोसवै, बरसण बहूगण मेह |
      लेवै कर जो लोक हित, बहूगण पुठो देह ||
१९.सोभा कारण सैन बस, दो मारग जस जाण |
      बस सासतरां बुध रमै, बाण ज रमै कबाण ||
२०.ग्यान,मौन,सगती,खमा   त्याग,रति न गुमान |
     सगा भ्रात ज्यूँ  भूप में,सै गुण एक समान ||
 

Wednesday, September 14, 2011

स्व .चन्द्र सिंह बादळी स्मृती संस्थान
ग्राम -बिरकाली

संग्राम सिंह बिरकाली
अध्यक्ष

आज दिनांक १४/०९/२०११ को जन कवि श्री चन्द्र सिंह बादळी की १९ वी पुन्य तिथि संजीवनी क्रेडिट को-ओपरेटिव सोसायटी के कार्यालय में क्षेत्रीय अधिकारी रविन्द्र सिंह इन्द्रोई की अध्यक्षता में मनाई गयी | इस अवसर पर मुख्य अतिथि डी ऍम भारद्वाज ने बादळी जी द्वारा रचित बादळी और लू ऋतू काव्य की व्याख्या करते हुए बताया की ये दोनों काव्यकृतीयां राजस्थान की वास्तविक वास्तु स्थिती से अवगत कराती है |श्री क्षेत्रीय अधिकारी ने इस अवसर पर उनके जीवन परिचय पर प्रकाश डाला तथा उनके सदा जीवन उच्च विचार के बारे में बताया | उन्होंने बताया की चंद्र सिंह बिरकाली से घर बसाने के बारे में एक बार पूछा गया था तो उन्होंने उतर दिया कि दो कमरे बादळी और लू आकाश में बनाये है| उनमे वास करूँगा |इस अवसर पर उनके पौत्र संग्राम सिंह बिरकाली भी मौजूद थे | उन्होंने बाते कि आधुनिक राजस्थानी रचनाओ में कदाचित बादळी ही एक ऐसी काव्यकृति है जिसके अब तक नो संस्करण प्रकाशित हो चुके है | बिरकाली जी को काशी की नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा रत्नाकर पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया गया | इसी पर राष्ट्रीय स्तर का बलदेवदास पदक भी बिरकाली को प्रदान कर सम्मानित किया गया| इस अवसर पर उत्तम सिंह बीकमपुर,उपेंद्र सिंह,बलवीर सिंह गोविन्दसर, जगत सिंह रेडा,महेश सिंह, एवम दीपक सारस्वत मौजूद थे|
श्री बादळी जी को शत शत नमन .............................................

Thursday, May 19, 2011

स्वामी विवेकानन्द के सुविचार


.उठो, जागो और तब तक रुको नही जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये ।
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जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो–उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो।
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तुम अपनी अंत:स्थ आत्मा को छोड़ किसी और के सामने सिर मत झुकाओ। जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्त नहीं हो सकते।
४.
मानव-देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि इस मानव-देह तथा इस जन्म में ही हम इस सापेक्षिक जगत् से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं–निश्चय ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।

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मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो–उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी।
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बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो -- यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं -- इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।
. तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो।
. वीरता से आगे बढो। एक दिन या एक साल में सिध्दि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर दृढ रहो। स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो।
.शत्रु को पराजित करने के लिए ढाल तथा तलवार की आवश्यकता होती है। इसलिए अंग्रेज़ी और संस्कृत का अध्ययन मन लगाकर करो।
१०.
यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खडे हो जाओगे, तो तुम्हे सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' ही नाश कर डालो।
११.
हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुज़रना होता है -- उपहास, विरोध और स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही ग़लत समझते है। इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं; परन्तु मुझे दृढ और पवित्र होना चाहिए और भगवान् में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायेंगे।
१२.
मेरी केवल यह इच्छा है कि प्रतिवर्ष यथेष्ठ संख्या में हमारे नवयुवकों को चीन जापान में आना चाहिए। जापानी लोगों के लिए आज भारतवर्ष उच्च और श्रेष्ठ वस्तुओं का स्वप्नराज्य है। और तुम लोग क्या कर रहे हो? ... जीवन भर केवल बेकार बातें किया करते हो, व्यर्थ बकवाद करने वालो, तुम लोग क्या हो? आओ, इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर लज्जा से मुँह छिपा लो। सठियाई बुध्दिवालो, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जायगी! अपनी खोपडी में वर्षों के अन्धविश्वास का निरन्तर वृध्दिगत कूडा-कर्कट भरे बैठे, सैकडों वर्षों से केवल आहार की छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी शक्ति नष्ट करनेवाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला घोटने वाले, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो? ...किताबें हाथ में लिए तुम केवल समुद्र के किनारे फिर रहे हो। तीस रुपये की मुंशी - गीरी के लिए अथवा बहुत हुआ, तो एक वकील बनने के लिए जी - जान से तडप रहे हो -- यही तो भारतवर्ष के नवयुवकों की सबसे बडी महत्वाकांक्षा है। तिस पर इन विद्यार्थियों के भी झुण्ड के झुण्द बच्चे पैदा हो जाते हैं, जो भूख से तडपते हुए उन्हें घेरकर ' रोटी दो, रोटी दो ' चिल्लाते रहते हैं। क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और पुस्तकों के समेत डूब मरो ? आओ, मनुष्य बनो! उन पाखण्डी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नत्ति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उन्के हृदय कभी विशाल न होंगे। उनकी उत्पत्ति तो सैकडों वर्षों के अन्धविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को ज़ड - मूल से निकाल फेंको। आओ, मनुष्य बनो। कूपमंडूकता छोडो और बाहर दृष्टि डालो। देखो, अन्य देश किस तरह आगे बढ रहे हैं। क्या तुम्हे मनुष्य से प्रेम है? यदि 'हाँ' तो आओ, हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों। पीछे मुडकर मत देखो; अत्यन्त निकट और प्रिय सम्बन्धी रोते हों, तो रोने दो, पिछे देखो ही मत। केवल आगे बढते जाओ। भारतमाता कम से कम एक हज़ार युवकों का बलिदान चाहती है -- मस्तिष्क - वाले युवकों का, पशुओं का नहीं। परमात्मा ने तुम्हारी इस निश्चेष्ट सभ्यता को तोडने के लिए ही अंग्रेज़ी राज्य को भारत में भेजा है...

Thursday, January 13, 2011

राजस्थानी निबन्ध सग्रह

राजस्थान साहित्य अकादमी ने हिंदी की तरह राजस्थानी में भी विभिन्न विधाओ के रचनाकारों को संकलित किया !
राजस्थानी निबन्ध संग्रह भी उसी योजना की कड़ी रही है!
जिसके संकलनकर्ता तथा संपादक चन्द्र सिंह बादळी थे !
१.मारवाड़ी समाज - श्री दामोदर शर्मा
२.सच बोल्या किया पर पड़े - श्रीलाल नथमल जी जोशी
३.लोक यात्रा - श्री मनोहर शर्मा
४.देश दसावर रा लोग - श्री गंगाराम पथिक
५.मात भाषा में शिक्षा अर राजस्थानी - श्री शक्तिदान कविया
६.मिनख जमारो - श्री मदनगोपाल शर्मा
७.राजस्थान अर उन् रो जीवन दरसन - श्री सुमेरसिंह शेखावत
८.पनघट री साँझ - श्री गिरराज भंवर
९.आपां काई खावा हाँ - श्री मिश्री लाल जैन'तरंगगीत'
१०.मेवाड़ी फागण - श्री लक्ष्मी कुमारी चुण्डावत
११.थोथी बाता - श्री रावत सारस्वत
१२.भारतीय एकता रा सूत्र - श्री रामनाथ व्यास'परिकर'
१३.काव्य री परख - श्री कुंवर कृष्ण कल्ला
१४.रै मानखा ! - श्री रामचंद्र बोड़ा
१५.नुई कविता रै गोखे सुं - श्री ओंकार पारीक
१६.सहित अर उन् रा भेद -श्री गोवर्धन शर्मा
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famous rajasthani poet

Monday, December 27, 2010

मायड भाषा के सपूत चन्द्र सिंह बादळी का सम्पूर्ण जीवन परिचय

कवि चंद्र सिंह बिरकाली
राजस्थान की बालू रेत के टिब्बो से घिरी मरुभूमि की आग उगलती गर्मी,तीर सी लगने वाली सर्दी और रिम झिम करती सुहावनी वर्षा की अनूठी प्रकृति ने अपने आंचल में अनेक सपूतों को जन्म दिया है |
अपने जीवन को अलग अलग क्षेत्रों में समाज और राष्ट्र को समर्पित कर वे महान सपूत कालजयी हो गए| ऐसे में कालजयी सपूतों में चंद्र सिंह बिरकाली का नाम है,जिन्होंने मायड भाषा राजस्थानी के साहित्य को समृद्ध कर,राजस्थान की अनूठी प्रकृति को देश के कोने कोने में पहुचाकर अमर कर दिया |
गांवो में चोपालों, खेतों, पनघटों पर बोली जाने वाली भाषा में रचनाओ को जन्म देकर राजस्थानी साहित्य को समृद्ध करने वाले कालजयी कवी चंद्र सिंह बिरकाली का जन्म राजस्थान के जिले हनुमानगढ़ की नोहर तहसील के बिरकाली गाँव में हुआ था| ठाकुर खुमान सिंह के घर में विक्रमी संवत १९६९ श्रावन सुदी पूर्णिमा (२७अगस्त १९१२)को महान सपूत ने किलकारी मारी थी| चंद्र सिंह का रचना संसार ७ वर्ष की अल्प आयु में ही शुरू हो गया था तथा राजस्थान की प्रकृति पर उनका लिखा गया एक एक शब्द अमर हो गया| बादळी और लू उनकी दो महान काव्य रचनाये है जिन्होंने सारे देश का ध्यान राजस्थान की ओर आकर्षित किया |
चंद्र सिंह बिरकाली से घर बसाने के बारे में एक बार पूछा गया था तो उन्होंने उतर दिया कि दो कमरे बादळी और लू आकाश में बनाये है| उनमे वास करूँगा| इन काव्य कृत्यों की महानता इससे बड़ी और कोई नहीं हो सकती कि ये दो रचनाये लोगो के हृदय में समाई हुई है |
राजस्थान के बाहर रहने वाले लोगों को लू रचना सबसे अधिक प्रिय लगी !चंद्र सिंह स्वंय को भी लू अधिक प्रिय लगती थी जिसका कारण वे बतलाया करते थे कि मरुभूमि में वर्षा तो यदा कदा ही होती है, मगर लू तो सदा
सदा ही मिलती रहती है |
जब लू चलती तो सब कुछ झुलसा देती है | बसन्त भी लुट जाता है जिसका सागोपांग वर्णन चन्द्र सिंह बिरकाली ने किया है
फूटी सावन माय
वाडी भरी बसन्त री लूटी लुआं आय
चन्द्र सिंह बिरकाली की ख्याति एक कवी के रूप में बदली के प्रकाशन के साथ ही फेलने लगी थी | बादळी सन १९४१ में लिखी गयी और उसका पहला संस्करण बीकानेर में प्रकाशित हुआ था| बीकानेर रियासत के महाराजा सादुलसिंह उस समय युवराज थे,जिन्हें पहला संस्करण समर्पित kiya गया था ! सन १९४३ में लोगो ने पढ़ा और ऐसा सराहा की चारो ओर बादळी की चर्चा होने लगी थी |बादळी को मरुधरा के वासी कैसे निहारते है, कितनी प्रतीक्षा करते है और वर्षा की बूंदों की कितनी चाह होती है |यह बिरकाली ने जनभाषा में बड़े ही रोचक ढंग से लिखा | बादळी के प्रकाशन के तुरंत बाद ही बिरकाली को काशी की नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा रत्नाकर पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया गया | इसी पर राष्ट्रीय स्तर का बलदेवदास पदक भी बिरकाली को प्रदान कर सम्मानित किया गया| आधुनिक राजस्थानी रचनाओ में कदाचित बादळी ही एक ऐसी काव्यकृति है jiske अब तक नो संस्करण प्रकाशित हो चुके है | महान साहित्यकारों सुमित्रा नंदन पन्त,महादेवी वर्मा और सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" ने बादळी पर अपनी सम्मतिया दी और उसे एक अनमोल रचना बतलाया
| यह अनमोल रचना कई वर्षो से माध्यमिक कक्षाओ के पाठ्यक्रम में पढाई जा रही है | साहित्यकारों रविन्द्र नाथ ठाकुर,मदन मोहन मालवीय आदि ने भी बिरकाली को श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में स्वीकार किया था |
बादळी और लू रचनाओ ने अनेक नए कवियों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया | चन्द्र सिंह बिरकाली की कुछ कविताओ का अंग्रेजी में भी अनुवाद हुआ | केंद्रीय साहित्य अकादमी के लिए प्रो.इंद्रकुमार शर्मा ने बादळी और लू का अंग्रेजी में अनुवाद किया था ! बीसवी शताब्दी का ठा दशक कविवर बिरकाली की सम्पन्नता और तेजस्विता का रहा | बिरकाली ने गाँव को छोड़कर प्रदेश की राजधानी को कार्यक्षेत्र बनाने हेतु जयपुर की खासा कोठी में अपना डेरा जमाया जहाँ कमरा नं. में वे रहने लगे | कुछ महीनो तक वहां रहने के बाद वे सी स्कीम में रहने लगे थे | चन्द्र सिंह के आसपास जयपुर में एक प्रभामंडल सृजित हो गया था, जिसमे राजनीतिज्ञ प्रशाशनिक पुलिस अधिकारी,और साहित्यकार सामिल थे | तत्कालीन गृह एवम स्वास्थ्य चिकित्सा मंत्री कुम्भाराम आर्य कविवर चन्द्र सिंह बिरकाली के अनन्य मित्रो में से एक थे | उस समय जनसम्पर्क निदेशक ठाकुर श्याम करणसिंह उप पुलिस महानिरीक्षक जसवंतसिंह पुलिस अधीक्षक जगन्नाथन भी बिरकाली के मित्रों में से एक थे |
रावत सारस्वत के सहयोग से उन्होंने राजस्थानी भाषा प्रचार सभा का गठन किया और राजस्थानी में मरुवानी नामक मासिक का प्रकाशन शुरू किया | मरुवानी का प्रकाशन शुरू करना आधुनिक राजस्थानी के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना रही| लगभग दो दशक तक प्रकाशित होती रहने वाली इस पत्रिका के माध्यम से राजस्थानी भाषा का श्रेष्ठतम सर्जन महत्वपूर्ण और प्रभावशाली रूप में सामने आया |राजस्थानी के चुने हुए रचनाकार मरुवाणी से जुड़े हुए थे | संस्कृत के प्रसिद्ध काव्यों के राजस्थानी में अनुवाद हुए जो चन्द्र सिंह और मरुवाणी के माध्यम से ही संभव हो सके थे !
चन्द्र सिंह बिरकाली उदार और मनमौजी स्वभाव के थे इसीलिए सातवे दशक में उनका प्रभामंडल प्रभावित होने लगा तथा आर्थिक संकट शुरू हो गया | वे बनी पार्क के एक छोटे से माकन में रहने लगे मगर साहित्य सर्जन को जारी रखा ! चन्द्र सिंह बिरकाली संस्कृत के बहुत अच्छे ज्ञाता थे | उन्होंने संस्कृत में रचे कुछ प्रसिद्ध काव्यों का सरल और सरस राजस्थानी में अनुवाद किया था |संस्कृत और संस्कृति प्रेम के संस्कार उनमे डा.दशरथ वर्मा ,पंडित विद्याधर शास्त्री ,प्रो.नरोतम स्वामी और सुर्यकरण पारिक जैसे गुरुजनों से मिले थे |
उन्होंने महाकवि कालिदास के रघुवंश का सरल राजस्थानी में अनुवाद किया जो मरुवाणी में प्रकाशित हुआ था जिसका एक खंड 'दिलीप' नाम से छप चूका है |उन्होंने कालिदास के ही विश्वप्रसिद्ध काव्य मेघदुतम का भी सरल राजस्थानी में मेघदूत के नाम से अनुवाद किया था |
उन्होंने महाकवि हाल के प्रसिद्ध प्राकृत ग्रन्थ गाथा सप्तसती की चुनी हुई श्रगारीक गाथाओ का राजस्थानी दुहों में अनुवाद किया और उसे नाम दिया,"कालजे री कोर " उन्होंने जफरनामा का भी अनुवाद राजस्थानी में किया | उन्होंने रविन्द्र नाथ ठाकुर की चित्रागदा का भी राजस्थानी में अनुवाद किया था | राजस्थान साहित्य अकादमी ने रविन्द्र सताब्दी के दौरान रविन्द्र नाथ ठाकुर की कविताओ के इस राजस्थानी अनुवाद को प्रकाशित किया था | उनका रचना कर्म बाल्यकाल से ही शुरू हो गया था | उन्होंने बालसाद नामक पुस्तक में अपने बचपन की काव्य व् गध रचनाओ को समेटा | उनकी अन्य रचनाओ में सीप नामक पुस्तक में परिपक्व जीवन के अनुभव की सुक्तिया राजस्थानी गध में है | उनकी अन्य चनाओ में कहमुकुरनी,साँझ,बंसंत,धीरे,डाफर,चांदनी,बातल्या बाड़ आदि है |
तुराज बसन्त आता है तब प्रिय को वरन करने का मन होने लगता है | इसे बिरकाली नेअनूठे ढंग से संजोया |
सूरज सुलबे आवियो, आयो डाफ अंत |
धरा वरण मन धार, अब बैठ्यो पाट बसन्त ||
मरुवाणी के लोग जो जीवन भोगते है उसका मार्मिक वर्णन बिरकाली के काव्य में है
खारो पाणी कुवंटा दिस दिस बजड भोम
उजड़ा सा बसिया जठे मिनखा मत होम
गर्मी में जब लू चलती है तब के हाल प्र बिरकाली का वरण
अलगा अलगा गाँवडा करडा करडा कोस
लू रल गया राह्ड़ा पंथी किण ने दोस
चन्द्र सिंह बिरकाली ने उच्च शिक्षा बीकानेर के डूंगर महाविद्यालय में प्राप्त की लेकिन शिक्षा को नौकरी का आधार नहीं बनाया | चन्द्र सिंह बिरकाली कुछ समय राजनीती में भी सक्रिय रहे लेकिन बाद में पुन साहित्य की ओर मुड गए | देश के स्वाधीन होने से करीब १० वर्ष पहले उन्होंने हिंदी में अंगारे शीर्षक से करीब एक सौ स्वतन्त्र छंद लिखे जो अभी प्रकाशित है | इनमे स्वतंत्रता के लिए हृदय में जो ज्वाला थी वह प्रगट हो रही थी |
माय भाषा के सपूत चन्द्र सिंह बिरकाली गाँव के एक ऊँचे रेतीले टिब्बे पर बैठ कर रचनाओ का सर्जन किया करते थे | यह ऊँचा टिब्बा आज भी गर्व से अपना भाल उठाये खड़ा है | इसी टिब्बे पर बैठ कर राजस्थानी भाषा के चहेते इटली निवासी डा.अल.पी.टेस्सीटोरी से बिरकाली की भेंट हुयी थी | बिरकाली ने इस टिब्बे का नाम टेस्सीटोरी टिब्बा रख दिया था |
राजस्थानी भाषा में बिरकाली ने जितना साहित्य सर्जन किया वह उनकी कीर्ति के लिए बहुत है | राजस्थानी भाषा का यह सपूत १४ सितम्बर १९९२ को यह संसार छोड़कर अमरत्व को प्राप्त हो गया | सांसारिक यात्रा के अंतिम ११ वर्ष उन्होंने अपने गाँव बिरकाली में ही बिताये थे |अंतिम समय उनके पास छोटे भाई बचन सिंह और बिरजू सिंह तथा उनके भतीजे शिवराज सिंह थे|
चन्द्र सिंह बिरकाली अभी कुछ वृष तक और जीना चाहते थे | वे वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण का राजस्थानी में अनुवाद करना चाहते थे | वे बिरकाली में राजस्थानी भाषा का एक शोध केंद्र भी खोलना चाहते थे | माय भाषा के इस सपूत के अमरत्व प्राप्त करने से दिन पूर्व आकाशवाणी सूरतगढ़ ने एक साक्षात्कार लिया था जो आज इतिहास बन गया है | उन्होंने राजस्थानी भाषा को मान्यता देने के प्रय्तनो के बारे में कहा की इसमें राजनीती घुस गयी है |
साची सूझ सरकार की संगम भेज्यो सुभाग
सांचे मन स्यूं सिंचियों मरुवाणी रो बाग
माय भाषा के सपूत कवि चन्द्र सिंह बिरकाली को इन्ही पंक्तियों के साथ शत शत नमन
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काळजै री कोर by चंद्र सिंह बादळी

१. नद तट रुंख उखाडियो,बच्चा आलण माय !
मौत डरे नह कागली, साथै बहती जाय !!
२.भुआ, गाँव तलाब कुण, उल्टायो आकास !
उड्या न हंसा उण समै, कमळ न बिखरया खास !!
रूप- सिणगार
१. ऐकल कालो हिरण जब, बायों पलटे काज !
बे आंख्या जळकाजळी, लोपण दूभर राज !!
२.कंगण-कोर उजाळती,हळदी उबटन हाथ !
कुण भागी होसी भलां, रमसी थारै साथ !!
३.हरखी हाळी लाडली,ओढ़ नवल्लो चीर !
संकड़ी गलीयां गाँव री,बदियो इसो सरीर !!
४.बांकी चितवन बांक गत,बांका बांका बोल !
बेटी बांकी तुझ वरे, आ बांकी अनमोल !!
प्रेम----
१.सुख में दुःख में एक गत,एक जान दो खोड़ !
भला पुरबला पुन्न बिन, मिलै न इसडी जोड़ !!
२.आँख गडायां हिरण में,हिरणी छोड़यां प्राण !
याद व्याध धण री करी,छुटी हाथ कबाण !!
३.नीलकमल काना खिले, रज उड़ नैना आये !
फूंक मार मुख चूम ले,कुणसो देव बताय !!
४.साले सखी कदम्ब तरु,और न साले कोय !
आवे कम गुलेल ले, उण रे पुस्पाँ सोय !!
५.बा धण धिन है बापड़ी, सपने देख्या सेण !
पी बिन नींदडली कठे, नैण घुल़ाऊँ रैण !!
६.चंद्रमुखी थारै बिना,चाँद रह्यो तरसाय !
चार पहर री चानन्णी, सौ पहरा जिम जाय !!
७.पथिक वधु बळी देवता, कंगण पडियो आय !
जाणे कुडको रोपियो ,इण दर काग न खाय !!
८.सुख सुमरण प्रिय संग रो, ज्यूँ ज्यूँ आवै ध्यान !
नुए मेघ री गाज आ, बाजै मौत समान !!
९.आखै दिन हाळी खपे, सोवै साँझ निढाल !
हालन जोबन कसमसे, बरसाले मत बाळ !!
१०.हाळी धण जद सुं बणी,कुटिल काळ रो ग्रास !
बसती बो नह बावड़े, हाळी जंगल बास !!
वीरपति
१.घावा बस जागे कुंवर, धण रे नींद न नैण !
सुख सोवे सो गाँव अब, दोरी उण ने रेण !!
२.धनस पिव रो बज्र सो,पड़ी कान टंकार !
बंदी खुद चट पुंछियां, आँसूं बंदी नार !!
३.कोरी बादळ गाज आ, नाह धनस टंकार !
मत हरखे मुझ प्यार दे, पिव न आवे लार !!

Tuesday, June 29, 2010

जफरनामो (मुग़ल बादशाह ओरंगजेब नै लिख्योड़ो गुरु गोविन्दसिंह रो पत्र )

<<<<<<<<<<<<<<<<राजस्थानी अनुवाद >>>>>>>>>>>>
प्यालो दे साकी वो, केसर रंग
साधे काम म्हारलो, जाग्याँ जंग
दाव असली दे इसो, ताजो तेज
कढ़े मोती काद सुं, लगे जेज

सिमरु इस तेग रो सिरजणहार !
बाण, ढाल, बरछी भल तेज कटार !!
सिमरु इस रच्या जिण, रण जूझार !
पून वेग दोड़तां, भल तोख़ार !!
बादशाही तने दी, जिण करतार !
धरम धारण धन दियो, मने अपार !!
तुरक ताजी छल तने, दी करतार !
दीन सेवा मने दी,उण दातार !!
फबे नह नाम , थारो ओरंगजेब !
नाम ओरंगजेब, नाह फरेब !!
खोटे करम बना रो, खाक मंदी !
गुन्धी भाया रंगतां, भारी रीत !!
.घर बणा माटी रो, मांडी नीव !
सुख संपत भाले तू, जड़ अतीव !!
.बेवफा ज़माने रो, चक्कर देख !
जीव बदले देह धर, मीन मेख !!
.सतावै जे तू, मिनख जान गरीब !
कसम खुदा ने चीर, इण तरकीब !!
१०.साईं जे साथी हो, हक़ री बात !
भावे सो रूप धारे, वै ही मात !!
११.बैरी करे दुश्मनी, बार हज़ार !
बाळ बांको हुवे साईं लार !!

सुभान तेरी कुदरत

परभात रो सुहावनो पो'र !चोखो चैतवाडो !फोग फूटे ! कैर बाटे सूं लड़ालुंब ! धरती पर पड़ी ओस जाणे मोती !
पवन रा हळका लैरका लोरी सी देवे ! धरती री हरी साड़ी पर उगते सूरज री किरणा कसीदो सो काढ़े! जंगल में मंगल !
जगां जगां हिरणा री डारां ! काला हिरण आगै सिरदार सा चालै ! लारै हिरणयां ! बाखोट ऊछले !चट चोकड़ी साधे तो लाहोरी कुता रा कान काटे ! झाडया रे ओले लूंकड़ी पूंछ रमाती फिरै ! स्याल अर स्याली रात रा धायेडा,कोरै कोरै टीबां पर लोटपलोटा खावै, किलोल करै, रागन्या काडै ! तो कठे सुसिया मखमल सी घास पर रुई रा फ़ैल सा उड़तां दिसे तो कठे आखरी में बेठयां गेळ करै ! भांत भांत ऋ चिड़ियाँ चर चर करै ! कैरां पर गोलिया टूट्या पड़े ! सारी रोही चैचाट करै !
उण समै एक तितर खेजडी सुं उड़ कोरी सी टीबी पै नीचे उतरयो! सामै दीवल सुं भरयो पुराणो छाणो दिस्यो ! डग खुली, नस उठी, चोफेर देख्यो !जंगल में मंगल देख फूल्यो !आखी जियाजूण जीवण सनेसो दियो ! खुसी रो अन्त न पार !मगन हो पुरै जोर सुं बोल्यो ! सारी रोही गूंजी-'सुभान तेरी कुदरत' ! तितर रो बोलणो हुयो, ऊपर उडतै लक्कड़बाज री आँख चट उण पर पड़ी ! पवनवेग, सरसप्प नीचो आयो !पाछो ऊंचो चढयो तो तितर बाज रै पंजे में हो, दीवल छाणे में ! दुसरो तितर बोल्यो !रोही फेर गूंजी -"सुभान तेरी कुदरत" !!!

कुं.चन्द्र सिंह "बादळी"