कुं. चन्द्र सिंह "बादळी"

जीवन परिचय

*जन्म -27 अगस्त 1912
*देहावसान -14 सितम्बर 1992

Tuesday, October 4, 2011

दिलीप- रघुवंश महाकाव्य के प्रथम सर्ग का राजस्थानी अनुवाद -चन्द्र सिंह बादळी रचित

‘रघुवंश’ की कथा दिलीप और उनकी पत्नी सुदक्षिणा के ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में प्रवेश से प्रारम्भ होती है। राजा दिलीप धनवान, गुणवान, बुद्धिमान और बलवान है, साथ ही धर्मपरायण भी। वे हर प्रकार से सम्पन्न हैं परंतु कमी है तो संतान की। संतान प्राप्ति का आशीर्वाद पाने के लिए दिलीप को गोमाता नंदिनी की सेवा करने के लिए कहा जाता है। रोज की तरह नंदिनी जंगल में विचर रही है और दिलीप भी उसकी रखवाली के लिए साथ चलते हैं। इतने में एक सिंह नंदिनी को अपना भोजन बनाना चाहता है। दिलीप अपने आप को अर्पित कर सिंह से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें वह अपना आहार बनाये। सिंह प्रार्थना स्वीकार कर लेता है और उन्हें मारने के लिए झपटता है। इस छलांग के साथ ही सिंह ओझल हो जाता है। तब नन्दिनी बताती है कि उसी ने दिलीप की परीक्षा लेने के लिए यह मायाजाल रचा था। नंदिनी दिलीप की सेवा से प्रसन्न होकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देती है। राजा दिलीप और सुदक्षिणा नंदिनी का दूध ग्रहण करते हैं और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस गुणवान पुत्र का नाम रघु रखा जाता है जिसके पराक्रम के कारण ही इस वंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है।
रघु के पराक्रम का वर्णन कालिदास ने विस्तारपूर्वक अपने ग्रंथ ‘रघुवंश’ में किया है। अश्वमेध यज्ञ के घोडे़ को चुराने पर उन्होंने इन्द्र से युद्ध किया और उसे छुडा़कर लाया था। उन्होंने विश्वजीत यज्ञ सम्पन्न करके अपना सारा धन दान कर दिया था। जब उनके पास कुछ भी धन नहीं रहा, तो एक दिन ऋषिपुत्र कौत्स ने आकर उनसे १४ करोड स्वर्ण मुद्राएं मांगी ताकि वे अपनी गुरु दक्षिणा दे सकें। रघु ने इस ब्राह्मण को संतुष्ट करने के लिए कुबेर पर चढा़ई करने का मन बनाया। यह सूचना पाकर कुबेर घबराया और खुद ही उनका खज़ाना भर दिया। रघु ने सारा खज़ाना ब्राह्मण के हवाले कर दिया; परंतु उस ब्राह्मणपुत्र ने केवल १४ करोड़ मुद्राएं ही स्वीकारी।
रघु के पुत्र अज भी बडे़ पराक्रमी हुए। उन्होंने विदर्भ की राजकुमारी इंदुमति के स्वयंवर में जाकर उन्हें अपनी पत्नी बनाया। कालिदास ने इस स्वयंवर का सुंदर वर्णन ‘रघुवंश’ में किया है। रघु ने अज का राज-कौशल देखकर अपना सिंहासन उन्हें सौंप दिया और वानप्रस्थ ले लिया। रघु की तरह अज भी एक कुशल राजा बने। वे अपनी पत्नी इन्दुमति से बहुत प्रेम करते थे। एक बार नारदजी प्रसन्नचित्त अपनी वीणा लिए आकाश में विचर रहे थे। संयोगवश उनकी विणा का एक फूल टूटा और बगीचे में सैर कर रही रानी इंदुमति के सिर पर गिरा जिससे उनकी मृत्यु हो गई। राजा अज इंदुमति के वियोग में विह्वल हो गए और अंत में जल-समाधि ले ली।
कालिदास ने ‘रघुवंश’ के आठ सर्गों में दिलीप, रघु और अज की जीवनी पर प्रकाश डाला। बाद में उन्होंने दशरथ, राम, लव और कुश की कथा का वर्णन आठ सर्गों में किया। जब राम लंका से लौट रहे थे, तब पुष्प विमान में बैठी सीता को दण्डकारण्य तथा पंचवटी के उन स्थानों को दिखा रहे थे जहाँ उन्होंने सीता की खोज की थी। इसका बडा़ ही सुंदर एवं मार्मिक दृष्टांत कालिदास ने ‘रघुवंश’ के तेरहवें सर्ग में किया है। इस सर्ग से पता चलता है कि कालिदास की भौगोलिक जानकारी कितनी गहन थी।
अयोध्या की पूर्व ख्याति और वर्तमान स्थिति का वर्णन कुश के स्वप्न के माध्यम से कवि ने बडी़ कुशलता से सोलहवें सर्ग में किया है। अंतिम सर्ग में रघुवंश के अंतिम राजा अग्निवर्ण के भोग-विलास का चित्रण किया गया है। राजा के दम्भ की पराकाष्ठा यह है कि जनता जब राजा के दर्शन के लिए आती है तो अग्निवर्ण अपने पैर खिड़की के बाहर पसार देता है। जनता के अनादर का परिणाम राज्य का पतन होता है और इस प्रकार एक प्रतापी वंश की इति भी हो जाती है |

.बोल अरथ समझण वीसै,प्रणमूं जग माँ बाप |
   मिळीया वाणी अरथ ज्यू,  उमा इश्वर आप   ||
.सूरज वंस प्रताप कुण, कुणसी म्हारी मत |
   तिरणो चाहूँ मोह बस, दुस्तर सागर हत्थ ||
३.पुगे जिण फळ पंचहथो, लफै बावनो लेण |
    हुवे हंसाई मंदबुद्ध, कुण जस लाग्यो देण||
.खोल्या चारण वंस रा,पहलां कवियां द्वार |
   तागो ज्यूँ मिण बेझ में,मेरी गत है लार||
.मोटी बुध हूँता थकां, वरणु मै रघुवंस |
    सुणीया गुण जिण वंस रा, उण प्रभाव रै अंस ||
.जनम सुद्ध हूँता जिका, फळ लग डटता काज |
    सुरग पार रथ पुगता, समदर लग धर राज ||
.विधि सूं करता होम वै, भरता जाचक मान |
    दोस जाण डंड देवता, उचित समै उत्थान ||
.संगृह करता दान हित, सतहित बीरला बैण |
    जस हित चांता जितणो, सुत हित सायधण सैण ||
.बाळपणे भणता भला, भरी जवानी भोग,
   बाणप्रस्थ बिरधापणे, आखर सरणो जोग ||
१०.स्याणा सद्गुण पारखी, इण कथ सुणनै जोग |
    खरो'क  खोटो आंच में, सुवरण जाणे लोग ||
११.राजावां में आदु नृप,वेदां ज्यूँ ओंकार |
    वैवस्तो मनु नाम रो,स्याणा माण अपार ||
१२.जायो इण सुध वंस में,अति विसूध राजेंद्र |
     नाम दिलीप प्रसिद्ध नृप, खिरसमंद ज्यूँ चन्द्र ||
१३.उर चोड़ो काठो पुठो, बाहू साळ विसाळ |
    क्षात्र धर्म नरदेह में, उपज्यो करण रुखाळ ||
१४.सारां सूं बळ में अधक, सारां तीखो तप्प |
     महि पर उन्नत मेरु सम, धारयो उन्नत ब्प्प ||
१५.देह सारसी प्रखर बुध, बुद्ध सरीसो ग्यान |
     ग्यान सारसो काज बस, फळ सै काज समान ||
१६.सागर दानव रतनमय, ज्यूँ डराय ललचाय |
     नृप गुण पूरण लोक हित, करड़े नरम सुभाय ||
१७.मारग कीधो मनु जिको, लांघी रति न लीक |
      भली धुरी परजा चली, मिल्यो सारथी ठीक ||
१८.ज्यूँ सूरज जळ सोसवै, बरसण बहूगण मेह |
      लेवै कर जो लोक हित, बहूगण पुठो देह ||
१९.सोभा कारण सैन बस, दो मारग जस जाण |
      बस सासतरां बुध रमै, बाण ज रमै कबाण ||
२०.ग्यान,मौन,सगती,खमा   त्याग,रति न गुमान |
     सगा भ्रात ज्यूँ  भूप में,सै गुण एक समान ||
 

कुं.चन्द्र सिंह "बादळी"